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समाज

समाज भारतीय समाज: अनेकता में एकता में अध्ययन

1.34 बिलियन जनसंख्या वाला भारत दुनिया में दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाला देश है। यह जनसंख्या महज एक आंकड़ा नहीं बल्कि विभिन्न धर्मों, भाषाओं, जातियों, उपजातियों का एक रंगीन मिश्रण है, इसमे तथाकथित "अनुसूचित" जनजातियां भी शामिल हैं, इस तमाम ताने-बाने और देश के आधिकारिक आंकड़ों से पता चलता है कि भारत की आबादी का अधिकांश हिस्सा 79.8%, हिंदुओं का है। 14.2% मुस्लिम   , 2.3% ईसाई, 1.7%, सिख, 0.7%, बौद्ध, 0.3% जैन, और 0.9% लोग अन्य धर्मों को मानने वाले हैं।  

जटिल जाति व्यवस्था

आमतौर पर हिंदू, जाति व्यवस्था का कड़े रूप से पालन करते हैं। हिंदुओं का पवित्र ग्रंथ, मनुस्मृति जो कि लगभग एक हजार साल ईसा पूर्व लिखा गया था और अभी भी हिंदू कानून के ऊपर प्रभाव रखता है। मनुस्मृति जाति व्यवस्था को सही ठहराती है। हिंदुओं को चार मुख्य श्रेणियों में विभाजित करती है: ब्राह्मण (पुजारी और शिक्षक), क्षत्रिय (योद्धा और शासक), वैश्य (किसान और व्यापारी) और शूद्र (मजदूर)। इन जातियों को 3000 जातियों और 25000 उप-जातियों में विभाजित किया गया है, जिससे यह एक बहुत ही जटिल सामाजिक संरचना बन गई है। आजकल भारत मे विशेष रूप से अधिक शहरी क्षेत्रों में जाति व्यवस्था कमजोर है लेकिन जाति की मौजूदगी अभी भी बहुत सामन्य बात है।

इसके अतिरिक्त, भारत में 700 से अधिक अनुसूचित जनजातियाँ हैं। यद्यपि भारत का संविधान "अनुसूचित जनजाति" शब्द की व्याख्या अथवा परिभाषा नहीं करता है। तथापि उनकी पहचान की कसौटी है कि वह  “आदिम लक्षण, विशिष्ट संस्कृति, भौगोलिक अलगाव, बड़े पैमाने पर समुदाय के साथ संपर्क, शर्मीलापन, और पिछड़ापन” आदि होते हैं। इन अनुसूचित जनजातियों में, 75 आदिम जनजातियाँ हैं। भारत सरकार के जनजातीय मामलों के मंत्रालय द्वारा परिभाषित शब्द ‘स्वदेशी’ अथवा ‘इंडीजीनियस’ कहा गया है। इन मानदंडों और परिभाषाओं का प्रयोग 1931 की जनगणना में किया गया था चूंकि यह ब्रिटिश सरकार द्वारा रखी गई थीं इसलिए यह नस्लवादी शब्दावलियां हैं, हालाँकि, यह अभी भी भारत में वर्तमान सरकार द्वारा उपयोग किए जा रहे हैं।

भाषाई विविधता

जनसंख्या और भूगोल की दृष्टि से देश मे 22 अनुसूचित भाषाएं हैं। संविधान की आठवीं अनुसूची में भारत की आधिकारिक और मान्यता प्राप्त भाषाओं की सूची जिसमें वर्तमान में 22  भाषाएं हैं। इन भाषाओं को आधिकारिक दर्जा और प्रोत्साहन दिया गया है और कुछ राज्यों में आधिकारिक भाषाओं के रूप में इसका इस्तेमाल किया जा सकता है। यद्यपि भारत का संविधान हिंदी और अंग्रेजी को आधिकारिक भाषाओं के रूप में मान्यता देता है, परंतु भारत में कोई भी एक भाषा राष्ट्रीय नहीं है। तथापि, बीतते समय मे हिंदी भाषा ने जनमानस की सार्वजनिक कल्पना में महत्वपूर्ण दर्जा हासिल कर लिया है। 500 मिलियन से अधिक लोग, कुल 43% आबादी हिंदी को अपनी मातृभाषा मानती हैं। हिंदी, जिसे गलती से देश की राष्ट्रीय भाषा के रूप में माना जाता है। यह एक दिलचस्प अध्ययन प्रस्तुत करता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 351 में कहा गया है, “हिंदी भाषा को विकसित करना और प्रसार को बढ़ावा देना संघ का कर्तव्य होगा ताकि वह भारत की समग्र संस्कृति के सभी तत्वों के लिए अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और हिंदुस्तानी और भारत की अन्य भाषाओं (संस्कृत इत्यादि आठवीं अनुसूची में निर्दिष्ट रूपों) शैली और अभिव्यक्तियों के साथ हस्तक्षेप किए बिना मूल को सुरक्षित रख सके”। उपयुक्त सारांश, हिंदी भाषा को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा देने की बात करता है, क्योंकि उपयुक्त वाक्य सीधे ही भाषा के प्रचार की बात करता है।

भारत में 2011 की नवीनतम राष्ट्रीय जनगणना में निम्नलिखित क्रम में अन्य प्रमुख बोली जाने वाली भाषाओं की सूची है: बंगाली, मुख्य रूप से पश्चिम बंगाल राज्य में (8.03%), मराठी, महाराष्ट्र राज्य में बोली जाती है (6.86%), तेलुगु, भाषा ज्यादातर आंध्र प्रदेश और तेलंगाना (6.70%), तमिलनाडु में बोली जाने वाली मुख्य रूप से तमिलनाडु राज्य और केंद्र शासित प्रदेश पुडुचेरी (5.70%) से संबंधित है। अन्य सूचीबद्ध भाषाएं जनसंख्या के 5% से भी कम हिस्से द्वारा बोली जाती हैं। भारत में भाषाओं के बारे में हिंदी में एक कहावत है कि ‘कोस कोस मे बदले पानी और चार कोस मे बदले वाणी’। भारत में, एक राज्य के भीतर भी एक से अधिक भाषाए अथवा बोली, बोली जाती हैं। क्षेत्रीय मीडिया के प्रसारण समाचारपत्र और टेलीविजन चैनल दोनों इस बात को स्पष्ट करते है कि भारत मे अनेकों भाषाएँ हैं।  

साक्षरता की चुनौती

भारत का साक्षरता आंकड़ा जेंडर असमानता को मजबूती से दर्शाता है। सेंसस 2011 के अनुसार, देश का कुल साक्षरता प्रतिशत 73% है, कुल 80.9% साक्षर पुरुषों के अतिरिक्त केवल 64.6% महिलाएं ही पढ़-लिख सकती हैं। यह असमानता एक और आंकड़े के माध्यम से भी रेखांकित की जा सकती है जिसमे भारत के ग्रामीण भाग मे लड़कियों के स्कूल बीच मे ही छोड़ देने का परिदृश्य बहुत ही आम है। जबकि कुछ अन्य हलकों मे यह भी आम है कि लड़कियां स्कूल ही नहीं भेजी जाती हैं। यह पहले से ही महिला असाक्षरता के आंकड़ों मे बढ़ावा देता है। 

सामाजिक समूहों के बीच आय की क्षमता

जाति और वर्ग पर आधारित सामाजिक पदानुक्रम अथवा भेदभाव आधिकारिक रूप से अवैध हैं लेकिन यह आज भी भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी प्रचलित हैं। जाति की धारणाओं को एक समूह, जनजाति या समुदाय के भीतर विवाह करने की सख्त प्रथा के माध्यम से प्रैक्टिस किया जाता है। आर्थिक रूप से पिछड़ापन, शिक्षा और बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच नहीं हो सकने के कारण समाज मे वर्गों का अंतर काफी बढ़ जाता है।

सामाजिक और आय असमानता आज भारत के लिए सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है, जिसे भारतीय मानव विकास सूचकांक (2004-05) द्वारा उजागर किया गया है। रिपोर्ट के अनुसार शहरी, अग्रगामी जाति की औसत घरेलू आय INR 72000 / USD 1008 है, जबकि शहरी क्षेत्र में अन्य पिछड़ी जाति के परिवार की आय रु 46600 / अमरीकी डालर 652, एक दलित परिवार के पास औसत घरेलू आय 40500 / USD 569; जबकि एक शहरी क्षेत्र में एक आदिवासी परिवार की औसत घरेलू आय 48000/ अमरीकी डालर 673 है, जबकि एक मुस्लिम परिवार के पास औसत घरेलू आय 37200 / USD 522. है।  

एक विविध समाज की चुनौतियाँ

आय असमानता शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा जैसी बुनियादी आवश्यकताओं तक पहुँच को मुश्किल बनाती है। ऑक्सफैम के अध्ययन में कहा गया है कि आय के मामले में भारत के शीर्ष 1% के पास देश की 73% संपत्ति है, यह आँकड़ा भारत में मौजूद विषम आय परिदृश्य को दर्शाता है। धर्मों, संप्रदायों, जातियों और उपजातियों के बीच विभिन्न धार्मिक समूहों के बीच, अक्सर ही मुसलमानों और हिंदुओं के बीच संघर्ष के मामले सामने आए हैं। हाल के वर्षों में, धार्मिक तनाव बढ़ा है। प्यू रिसर्च सेंटर स्टडी ने भारत में धर्म को सामाजिक शत्रुता के सूचकांक में "बहुत उच्च" स्थान दिया है। ऐसे मामले सामने आए हैं जब मुस्लिम पुरुष गोमांस खाने के संदेह और गोहत्या के शक से भीड़ का निशाना बना था। जैसा कि हिंदू मान्यताओं में गाय को पवित्र माना जाता है, गोमांस का सेवन धर्म के खिलाफ माना जाता है, यानी भारत के कुछ राज्यों में गाय को मारना या नुकसान पहुंचाना गैरकानूनी है। 

भारत में मीडिया की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक मुद्दों से संबंधित जनमत को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। मीडिया भ्रष्टाचार के मामलों को उजागर करने के लिए जनता की ओर से निगरानी बनाए रखता है और जनता को सशक्त भी बनाता है।  हालांकि, हाल के वर्षों में ऐसे उदाहरण सामने आए हैं जिसने यह स्पष्ट किया है मीडिया ने सजग प्रहरी की भूमिका के विपरीत,सरकार के पक्ष मे तेजी से काम किया है। यह वर्तमान प्रधानमंत्री मोदी के साथ भी जोड़ा जा सकता है।  वर्तमान मे मीडिया सत्ता के पक्ष-विपक्ष मे बोलने से कतराते रहे हैं। वाशिंगटन पोस्ट की एक रिपोर्ट के अनुसार, "मोदी के भारत में, पत्रकारों को सच बोलने के जुर्म मे, आपराधिक मामलों का सामना करना पड़ा हैं"लिंक देखेँ -   समय- समय पर इन समस्याओं के बावजूद, भारत का बहुलतावादी समाज मूल रूप से विविधता प्रेमी है, इसे विशेष रूप से त्योहारों के दौरान कई अलग-अलग स्तरों पर देखा जा सकता है। भारतीय समाज, "विविधता में एकता" की मूल भावना को साकार करता है।  

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