पारदर्शिता
“आजाद समाज के लिए प्रेस की आजादी महत्वपूर्ण है”।
मीडिया किसी भी समाज में एक मजबूत राजनीतिक कथा शुरू करने के लिए एक शक्तिशाली उपकरण है। दर्शकों द्वारा उपभोग की जाने वाली जानकारी सीधे तौर पर उनकी राय पर असर डालती है। यह जानकारी लोकतंत्र के जीवित रहने और फलने-फूलने के लिए महत्वपूर्ण मानी जा सकती है। हालांकि इन दिनों एक चिंताजनक प्रवृत्ति यह है कि मीडिया आज किसी वर्ग विशेष के विशिष्ट हितों को पूरा करने मे संलिप्त है। जानकारी को स्थानांतरित करने के अपने मूल उद्देश्य से दूर हट चुका है। मीडिया के साथ सत्ता का जुड़ाव समाज के हित को पीछे ले जाता है। मीडिया का नियंत्रण सार्वजनिक सहमति बनाने और असंतोष को नियंत्रित करने में सहायक रहा है। सूचना नियंत्रण विभिन्न प्रकार के चैनलों के माध्यम से होता है। सख्त कानून लागू करने से रिपोर्टिंग का दायरा भी सीमित होता है, जैसे विज्ञापन भी एक तरह से मीडिया को नियंत्रित करता है। हालांकि अब यह बहुत ही सूक्ष्म तरीके से राजनीतिक चिंतन को नियंत्रित कर रहा है। इसके अतिरिक्त मीडिया आउटलेट्स पर दबाव रणनीतियों के माध्यम से आत्म-सेंसरशिप का आग्रह करना नियंत्रण का एक उपकरण है।
राजनीतिक पहुँच और मीडिया स्वामित्व
पिछले दशक में भारतीय मीडिया परिदृश्य काफी बदल गया है। प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में प्रगति के साथ, मीडिया उद्योग काफी तेजी से फलफूल रहा है। आउटलेटस की बढ़ती संख्या,पहुँच का विस्तार हो चाहे टेलीविजन, रेडियो या समाचार पत्र,विस्तार चारों दिशाओं मे देखा जा सकता है। तेजी से बढ़ते मीडिया परिदृश्य ने कुछ अंतर्निहित परिणामों और चुनौतियों को भी जन्म दिया है। सत्ता के गलियारों तक पहुंच रखने वाले लोग, इन आउटलेट्स मे आंशिक रूप से स्वामित्व रखकर समाचारों को प्रस्तुत करने के तरीके को प्रभावित करने के साथ साथ सम्पूर्ण सूचनातंत्र के प्रसार को प्रभावित करने में सफल हो रहे हैं। स्पष्ट रूप से, मीडिया का स्वामित्व रिपोर्टिंग में प्रस्तुत दृष्टिकोण को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करता है और ऐसी परिस्थितियों में पूर्वाग्रह होना अपरिहार्य है।
इस अध्ययन के सैंपल के अनुसार, दस मीडिया मालिकों के राजनीति के साथ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संबंध हैं, जबकि उनमें से कुछ सीधे तौर पर राजनीतिक पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हैं। हालांकि, अन्य व्यक्ति जिन्होंने अपनी राजनीतिक संबद्धता घोषित करने से इनकार किया है, लेकिन फिर भी मीडिया कंपनियां उनके स्वामित्व मे हैं। इन सब के बीच राजनीतिक लिंक वाले मीडिया मालिक दर्शकों / पाठकों की एक बड़ी संख्या नियंत्रित करते हैं।अगस्त 2016 से डॉ. सुभाष चंद्रा, (आंतरिक लिंक) ज़ी न्यूज़ के सह-मालिक, राज्य सभा के स्वतंत्र सदस्य हैं। हालांकि वे भारतीय जनता पार्टी, भाजपा के सदस्यों की मदद से हरियाणा राज्य से चुने गए। ज़ी मीडिया कॉरपोरेशन लिमिटेड (ZMCL) ज़ी न्यूज़ का मालिक है, जो देश के शीर्ष चार हिंदी समाचार चैनलों में से एक है भाजपा के प्रति सहानुभूति रखने वाला माना जाता है। राजीव चंद्रशेखर (आंतरिक लिंक) भाजपा के सदस्य हैं, सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के सदस्य और राज्यसभा के सदस्य हैं। वह रिपब्लिक टीवी से संबंधित हैं और यहाँ अंग्रेजी समाचार खंड के प्रति उत्तरदायी हैं। हालाँकि उन्होंने औपचारिक रूप से ब्रॉडकास्टर के बोर्ड से इस्तीफा दे दिया और कारण के रूप मे राजनीतिक पार्टी से संबंध का हवाला दिया। बावजूद, चैनल कभी भी भाजपा के अनुकूल टेलीविजन समाचार आउटलेट होने की धारणा को गलत साबित नहीं कर पाया। चंद्रशेखर की जुपीटर कैपिटल प्राइवेट लिमिटेड (इंटरनल लिंक) भी सीधे तौर पर दो दक्षिण भारतीय समाचार चैनलों - मलयालम में एशियानेट न्यूज़ और कन्नड़ में सुवर्णा न्यूज़ के मालिक है। (आंतरिक लिंक)विभिन्न क्षेत्रीय समाचार चैनल भी आंशिक या पूर्ण रूप से राजनेताओं के स्वामित्व मे हैं। इन क्षेत्रों में राजनीति और मीडिया के बीच घनिष्ठता होने के कारणों और परिणाम के रूप मे कहा जा सकता है की क्षेत्रीय राजनीतिक दल भारत की राजनीति मे महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं, क्योंकि वह बड़े पैमाने पर पहुंच बना सके हैं। कांग्रेस और भाजपा जैसे राष्ट्रीय दल आज चुनाव के दौरान इनके साथ गठबंधन की अवस्थिति मे हैं। इन मजबूत राष्ट्रीय राजनीतिक संगठनों ने अंततः अपने स्वयं के मुखपत्र के रूप मे मीडिया आउटलेट्स को चुना लिया है। इसके कुछ उदाहरण हैं: बैजयंत जय पांडा, बीजू जनता दल, बीजद के एक पूर्व सदस्य है, यह ओडिशा में एक क्षेत्रीय पार्टी है। यह पार्टी पाँच कार्यकाल से सत्ता में है। आज 'जय' पांडा बीजेपी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और पार्टी के आधिकारिक प्रवक्ता हैं और इसके अलावा ओडिशा टीवी के सह-मालिक हैं। हिंदी अखबार दैनिक जागरण के मालिक महेंद्र मोहन गुप्ता राज्य सभा के सदस्य हैं। सुप्रिया सुले, साकल एक मराठी अखबार की निदेशक, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की राजनीतिज्ञ और लोकसभा, भारतीय संसद की सदस्य हैं। एक अन्य राजनेता, हिमंत बिस्वा सरमा, असम राज्य में भाजपा सरकार में मंत्री, रिंकी भुयन सरमा के पति हैं वह समाचार टेलीविजन चैनल न्यूज़ लाइव की मालिक हैं। यह बहुत स्पष्ट है कि मीडिया उन लोगों के स्वामित्व में है जिनके पास प्रत्यक्ष रूप से सत्ता तक पहुंच है। उनके द्वारा संचालित मीडिया चैनलों से निर्गत जानकारी पूर्वाग्रही रूप से सहमति निर्माण और नया विमर्श तैयार करने मे व्यस्त हैं। यह पूरी प्रक्रिया किसी एक राजनीतिक एजेंडे को पूरा करने के लिए चलाई जा रही है। राजनीतिक कनेक्शन वाले लोगों द्वारा समाचार प्रसार नियंत्रित किया जा सकता है और इससे एकतरफा विचार और धारणा बन सकती है जो एक निश्चित राजनीतिक विचारधारा या विचार के एजेंडे की ही सेवा करेगी।
सरकारी विज्ञापन पर मीडिया की निर्भरता
प्रत्यक्ष स्वामित्व के अलावा, विज्ञापन संपादकीय सामग्री पर संभावित नियंत्रण का एक और रूप है, क्योंकि विज्ञापन के माध्यम से राजस्व अधिक पैदा होता है। इसलिए, यह कहना उचित है कि भारतीय मीडिया, इन दिनों पत्रकारिता मूल्यों से प्रेरित होने के बजाय लाभ से प्रेरित है।मीडिया की विज्ञापन पर निर्भरता से समस्या तब आती है जब मीडिया हाउस विज्ञापन के माध्यम से अतिरिक्त पैसा कमाते हैं और, सरकारी विज्ञापन राजनीतिक एजेंडे के प्रसार में योगदान करते हैं। राज्य के विज्ञापनों पर मीडिया हाउस की वित्तीय निर्भरता सरकार के लिए अनुकूल कवरेज का महोल तैयार कर देता है। पारदर्शी और स्वतंत्र कवरेज इस प्रकार के अप्रत्यक्ष दबाव और तरीकों से बहुत हद तक प्रभावित होता है।
अक्सर, एक अख़बार, या एक टेलीविजन चैनल पर एक अदृश्य दबाव होता है, जो एक विवादास्पद मुद्दे में सरकार के प्रति दृष्टिकोण को स्पष्ट करता है। 2017 के आंकड़ों के अनुसार, ऑडियो-विजुअल पब्लिसिटी विभाग, सरकारी विभाग जो कि आउटलेट्स को प्रिंट करने के लिए सरकारी विज्ञापन आवंटित करता है, हिंदी के लिए INR 2160 मिलियन / USD 32.468 मिलियन और अंग्रेजी के विज्ञापन के लिए INR 1400 मिलियन / USD 21.044 मिलियन तक खर्च करता है। सरकारी विज्ञापन इसलिए कई लोगों के लिए रोजी रोटी हैं, विशेष रूप से छोटे हिंदी समाचार पत्रों के लिए जो अपने वित्तीय व्यय के लिए इस पर निर्भर भी है और परिणाम स्वरूप इनके एजेंडे को आगे ले जाने का काम भी कर रहे हैं। सरकार उन लोगों को विज्ञापन दे सकती है अथवा देती है जिन्हें वे पुरस्कृत करना चाहते हैं। इसके विपरीत, जिन अखबारों की अपनी कमाई है, सरकार द्वारा उन्हें दिए जा रहे विज्ञापन में कटौती करके आसानी से दंडित किया जा सकता है। सार्वजनिक विज्ञापन आवंटन को प्रभावित करने के लिए सदैव ही प्रयास किया जाता रहा है। हालांकि यह पूर्वनिर्धारित होता है और इसमे जवाबदेही का अभाव होता है। यह डीएवीपी (ऑडियो विजुअल पब्लिसिटी निदेशालय) द्वारा अनुमोदित सर्कुलेशन डेटा पर निर्भर करता है। ये आंकड़े प्रमाणित चार्टर्ड एकाउंटेंट की गवाही पर निर्भर करते हैं जो अखबार की मुद्रित प्रतियों की आधिकारिक संख्या को स्थापित करता है। हालाँकि, भारत में मुद्रित अखबारों की संख्या की भौतिक जाँच की कोई गुंजाइश नहीं है क्योंकि अखबारों और टीवी चैनलों की संख्या में बड़े पैमाने पर वृद्धि हुई है। नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, 380 प्लस टीवी समाचार स्टेशन और 118,239 प्रकाशन हैं, जिसमें 17,239 दैनिक समाचार पत्र शामिल हैं। टीवी में सरकारी विज्ञापन का वितरण रेटिंग पर आधारित है, इसमें भी संदेह की गुंजाइश है क्योंकि ये रेटिंग उद्योग के स्वामित्व वाले संघ द्वारा बिना किसी पारदर्शिता या जवाबदेही के स्थापित की जाती हैं। इसके अलावा, शीर्ष चार टीवी चैनलों के दर्शक शेयर एक-दूसरे के बेहद करीब हैं और आलोचकों का आरोप है कि टीवी पर सरकारी विज्ञापन का आवंटन मनमाना है।यह भी सच है कि ‘आधिकारिक’ राज्य विज्ञापन राजनीतिक दलों से आता है और यह भी कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि बीजेपी, सत्तारूढ़ पार्टी, पिछले पांच वर्षों में सबसे बड़ी विज्ञापनदाता है। ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल (BARC) के अनुसार पार्टी एक सप्ताह मे कम से कम (12 से 16 नवंबर, 2018 के बीच) 22,099 (टीवी पर एक विज्ञापन प्रसारित होने की संख्या) बार टीवी पर विज्ञापन के रूप मे थी 2018 के अंत में विधानसभा चुनावों में जाने वाले पांच राज्यों में बीजेपी के विज्ञापनों ने सभी चैनलों में नंबर एक स्थान हासिल किया - मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम इनमे प्रमुख हैं। पिछले सप्ताह के लिए भाजपा दूसरे नंबर पर रही, जबकि कांग्रेस पार्टी ने शीर्ष-दस की सूची में भी जगह नहीं बनाई।
मीडिया मालिक विज्ञापन के माध्यम से राजनीतिक लाभ उठाने के बारे में जागरूक हैं। आधिकारिक सरकार और भाजपा की लाइन दोनों टीवी और प्रिंट में स्पष्ठ पहुँच रखते हैं जबकि विपक्ष का स्पष्ट रूप से कम कवरेज है।
मीडिया पर राजनीतिक कब्जे को नियंत्रित करने की अवश्यकता है
सरकार और सत्तारूढ़ दल का मीडिया पर बढ़ता नियंत्रण एक सर्वव्यापी घटना है उनका यह हथकंडा जनता पर पकड़ बनाने के लिए काम आया है। नए तरह के विमर्श को गढ़ने और राय की स्वतंत्रता को सीमित करने के अलावा, इसने लोगों को उनके वास्तविक हितों को जानने से भी वंचित रखा है। मीडिया पर राजनीतिक पकड़ सरकारों, राजनीतिक दलों और बड़े निगमों द्वारा होती है और जो समाज के हाशिये पर हैं, उनके लिए ती स्थिति और भी खराब हो जाती है। यह एक सबसे महत्वपूर्ण सवाल है कि क्या राजनीतिज्ञों का मीडिया स्वामित्व रखने की स्थिति पर प्रतिबंध लगाने वाला कानून होना चाहिए। जैसा कि इस पर आलोचना और टिप्पणी के लिए स्थान तेज गति से सिकुड़ रहा है, इस मुद्दे को हल करने की तत्काल आवश्यकता है।
क्योंकि स्वामित्व का यह तानाबाना जनता की नज़र में अदृश्य है, इसे किसी भी खतरे के रूप मे रेखांकित ही नहीं किया जाता है। जबकि यह प्रेस की आजादी के खतरे में योगदान देता है और पत्रकारिता के नैतिक मूल्यों से समझौता करता है। फ्री प्रेस अनलिमिटेड के अनुसार, मीडिया के स्वामित्व में निहित स्वार्थ रखने वाले लोगों ने सरकारों और निगमों को “एक केंद्रीकृत सूचना रणनीति विकसित करने मे सक्षम बनाया है, यह आधुनिक प्रचार प्रसार के लिए है। आज सभी महत्वपूर्ण मीडिया एक समान शब्दावली का प्रयोग कर रहे हैं, सब एक ही दुश्मन का प्रतिरोध कर रहे हैं, शीर्ष नेतृत्व के कार्यों मे समर्थन के लिए एक स्वर मे तर्क प्रस्तुत करते हैं”।
आज, भारत में मीडिया पर राजनीतिक नियंत्रण के खिलाफ कोई नियामक सुरक्षा उपाय नहीं हैं। भारतीय कानून रेडियो के अपवाद के साथ टेलीविजन या प्रिंट मीडिया में राजनीतिक स्वामित्व को प्रतिबंधित नहीं करते हैं। राजनीतिक दलों या उसके सदस्यों को रेडियो स्टेशन संचालित करने के लिए लाइसेंस के आवेदन करने के लिए भी अयोग्य ठहराया जाता है। हालांकि, रेडियो को भी स्वतंत्र समाचार प्रसारित करने से रोक दिया गया है।मालिकों या उनके परिवार के सदस्यों की राजनीतिक संबद्धता का खुलासा करने के लिए कोई अनिवार्य बाध्यता नहीं है।
स्रोत
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Retrieved from the Indian Express on 28th May 2019
Media Coverage of the 1943 Bengal Famine
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History of Freedom of Press in India
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BJP is leading advertising brand on Indian TV
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Indian journalists say they are intimidated, ostracised if they criticise Modi and the BJP
Retrieved from Reuters on 28th May 2019
In Modi's India, journalists face bullying criminal cases and worse
Retrieved from The Washington Post on 28th May 2019
Indian Journalism Under Increasing Political Control
Retrieved from Huffpost on 28th May 2019
What's wrong with Indian media?
Retrieved from DW on 28th May 2019